जीवन में सत्‍यम, शिवम, सुन्‍दरम का वास हो।

*सत्यम्-शिवम्-सुंदरम्*
  जीवन में सत्‍यम, शिवम, सुन्‍दरम का वास हो।
       
जीव गर्भ में आया मान से,गोदी में आया शान से ,प्‍यार मिला सम्‍मान से, तुलना हुई भगवान से और फिर पाला पडा जहान से । बस यहीं से जीवन जीने की असली कहानी शुरू होती है। जीने की कला के लिये हमारे शास्‍त्रों ने,संतो ने, विव्‍दानों ने, कई सुत्र बताये किन्‍तु उन गुणसूत्रों को जीवन में समाहित करने के लिये मानव ने सदैव चूक की ,इसी कारण वह आज का जीवन जी रहा है टेन्‍शन में, इन्‍जेक्‍शन में, इनफेक्‍शन में, फ्रेक्‍शन में सस्‍पेंस और न्‍यूसेंस में। यदि चित्‍त को, चरित्र को, चिन्‍तन को चेतना को, चंचलता को, चेक आउट करते रहोगे तो चिरंजीवी होकर अम्रत सरोवर में गोते लगाते रहोगे। यदि आपने स्‍वयं को चिन्‍ता , चरित्र हीनता, चाटूकारिता, चकाचौंध, चिडचिडेपन के फेविकोल से जोड लिया तो फिर जीवन पतन, परेशानी और अपमान का ज्‍वालामुखी बन लावा उगलने लगता है।
       आनन्‍द का झरना सदैव अन्‍दर से बाहर प्रवाहित होता है। इसलिये हमें जीवन के प्रत्‍येक क्षण का उपयोग पारमार्थिक प्रयोजन के लिए करना चाहिए। जिस प्रकार पक्षियों को सुबह, उल्‍लू को रात, मक्‍खी को शहद और गिध्‍द को शव सबसे ज्‍यादा प्रिय है उसी प्रकार मानव को अपना जीवन। इसलिए जीवन की जवानी के कोषालय में सदाचार और सदगुणों का संग्रह करो जो वृध्‍दावस्‍था में सम्‍मान के साथ जीवन को जीने का मनोबल प्रदान करेगें।
       शैक्‍सपीयर का कहना है कि चिन्‍तन मस्तिष्‍क की उर्जा का सहज स्‍फूरित अवदान है। मानवीय स्‍वभाव है कि वह हर क्षण कुछ न कुछ विचार करता ही रहता है और विचार कभी नष्‍ट न होकर चिरजीवी रहता है। एक विचार परिवर्तन बिन्‍दू बनकर जीवन को बदल देता है । एक विचार विपत्ति के तूफानी समुद्र में मार्गसूचक प्रकाश स्‍तम्‍भ बन सकता है । एक विचार मानव को जडता की निष्क्रियता  से उपर उठा सकता है और एक विचार मानव को अमानव बना देता है। इस प्रकार सकारात्‍मक रूप से चिन्‍तनशील विचार मन की शक्ति,स्थिरता और शान्ति से जीवन की यात्रा को सुखद और उल्‍लासमय बनाता है।
       बुध्दि उपयोग से तीव्र , अनुपयोग से मन्‍द और दुरूपयोग से विक्रत हो जाती है। इसलिए मानव को सदैव सकारात्‍मक चिन्‍तन करते रहना चाहिए। शान्तिपूर्ण जीवन के लिए हमें सहनशीलता,क्षमाशीलता से यात्रा प्रारम्‍भ करते हुए प्रेम और उदारता की व्रत्ति को विकसित करना चाहिए। सहज रहने से स्‍वर्गिक सुख की प्राप्ति होती है। आप जैसे हैं वैसे ही रहें, बनावटीपन को जीवन में स्‍थान नहीं दें । जीवन का एक सरल सा सूत्र है मनुष्‍य को प्रतिध्‍वनि में वही मिलता है जिसे वह दूसरों को देता है।
          वाणी विचारों  के सम्‍प्रेषण का सशक्‍त माध्‍यम है। स्रष्टि में शब्‍दों से सुन्‍दर कोई रचना नहीं है। भाषा को मूक मन कहा जाता है और मन को मुखर भाषा कहा जाता है । जब तक मन की बाते मन में रहती है व्‍यक्तिगत होती है और वाणी में उतर आती है तो सामाजिक  बन जाती है। इसीलिए बुध्दिमानों ने होठों को तिजोरी के दो व्‍दार कहा है ,वे ज्‍योंही खुलते है शब्‍दरूपी सरसता के मोती उडेलते हैं । कहा गया है '' वाणी ऐसी बोलिए, मन का आपा खोय,औरन को शीतल करे आपहु शीतल होय। वाणी की सत्‍यता,स्‍पष्‍टता और विनम्रता मानव मन को सम्‍बल प्रदान करती है। मानव स्‍वस्थ रहने के लिए कडवी दवाई तो पी सकता है किन्‍तू दूसरों के व्‍दार अपने प्रति बोली गई कडवी वाणी को कभी भी पचा नहीं सकता है। कबीर जी ने कडवी वाणी के बारे में कितनी सारगर्भित बात कही है।
  आवत गारी एक है, उलटत होय अनेक, कह कबीर न उलटिए, वही एक की एक।
         जिस प्रकार लोहे में उत्‍पन्‍न जंग उसी को खा जाता है ,उसी प्रकार मानव मन में पनपने वाली ईर्षा ,व्‍देष ,कपटता,कठोरता ,दिल दिमाग को खोखला बना देते हैं।अन्‍तकरण के दर्पण में कुछ भी नहीं छिपाया जा सकता है। जैसा भी सोचोगे का उसका रिफलेक्‍शन तत्‍काल चेहरे पर दिखाई पड जायेगा । हमारा व्‍यवहार ही हमारी भावनाओं का दर्पण है।
        हमारे शरीर के अंगो की भी भाषा होती है । मस्तिष्‍क पर उभरती सलवटें,आंखो में उतरता खून ,नाक में श्‍वासों का उतार चढाव, होठों का फडफडाना, आवाज का कपकपाना,हाथों का मुठठी बंधन, पैरों की अस्थिरता, सीधे सीधे बताती है कि आप क्रोध के आधीन हैं। वैचारिक मन्‍थन दूषित है। मन बदले की भावना से ओतप्रोत है, शरीर नियन्‍त्रण से बाहर है तथा इसीका रूपान्‍तरण वैरभाव में हो जाता है। शरीर के इन्‍ही अंगो में कोमलता का भाव हो ,मस्‍तक तेजोमय,आंखो में अपनापन,होठों पर अठखेलियां,वाणी में विनम्रता,आवाज में आशावाद,हाथों में सेवा,दान और दया का भाव,पदचाप मन्दिर की ओर चले,राजसी भावों का मन में उदय हो तो फिर देखिए आपका यह शरीर रूपी कल्‍पवृक्ष सारी मनोकामनाओं की पूर्ति करेगा । उक्‍त प्रव्रत्तियां  मानव अंगो में बिना धन खर्च किए प्राप्‍त होती है। एक प्रव्रत्ति में शक्ति का अपव्‍यय होता है तो दूसरी प्रव्रत्ति उसका संचय कर मानव को देदीप्‍यमान बनाती है। अत- अपने जीवन में सत्‍यम ,शिवम,सुन्‍दरम का निवास बनाने के लिए सकारात्‍मक शक्तियों का वास कराकर जीवन जीने की मिठास पैदा करो ।
                                   उद्धव जोशी,
                   एफ 5/20 एल आय जी ऋषिनगर उज्‍जैन।  

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