
परम श्रध्देय पू;श्री लालजी साहब पंडया को अपना गुरू मानकर उपके आशीर्वाद एवं मार्गदर्शन में आध्यात्मिक ग्रंथों का गहन अध्ययन तथ बैजनाथ महादेव मन्दिर आगर में नियमित शिवोपासना एवं गायत्री अनुष्ठानों के फलस्वरूप उन्हें अलौकिक दिव्य अनूभुतियां प्राप्त हुई । सन 1932 में युवा पत्नी,परिवार वकालात सब कुछ एक क्षण में त्याग कर हमेशा के लिए समर्थ गुरूदेव की शरण में चले गए। अपनी कठोर साधना ,तप,संयम,तीव्र वैराग्य एवं गुरूदेव की अनन्य भक्ति के कारण कुछ ही वर्षो में समथ गुरूदेव ने क्रपा कर आपको आत्मसाक्षात्कार प्रदान कर नर से साक्षात नारायण बना दिया। विवेकानंद की भांति गुरूदेव ने अपनी समस्त सिध्दियां आपको प्रदान कर वन्दनीय बना दिया ।
समर्थ गुरूदेव की संवा में आने और आत्मस्वरूप साक्षात्कार करने के पश्चात आपने गुरूदेव की महिमा का अनंत विस्तार किय,जिससे भक्तों का कल्याण हो सके तथा गुरूदेव के आश्रमों पर आध्यात्मिक अनुष्ठानों का क्रम प्रारम्भ कर भक्तों को दिव्य आत्मशांति एवं आनंद की अनुभूति कराई। आज भी मालवा,राजस्थान,उत्तरप्रदेश,गुजरात देहली आदि स्थानों पर हजारों की संख्या में आपके भक्त है ।
आपने गुरूदेव के समस्त साहित्य को संकलित करवाकर श्री नित्यानंद विलास नामक ग्रंथ के रूप में प्रकाशित करवाया तथा स्वयं ने भी नित्य पाठ दीपिका नाम श्रेष्ठ ग्रन्थ की रचना की। आपने गुजरात में नार तथा हिरव्दार में अदभूत प्रणव मन्दिर की स्थनाना करवाकर अभिनव ऐतिहासिक कार्य किया। संगमरमर के विशाल पत्थर पर सहस्त्रदल कमल एवं उसके भीतर व्दादशदल कमल की आक्रति के उपर ओम के सिंहासन पर श्री गुरू पाद पदम की आक्रति अंकित की गई थी । नार तथा हिरव्दार के प्रणव मंदिर के नीचे एक अरक 75 करोड से अधिक ओम भक्तों से लिखवाकर रखे गये । आपके व्दारा चयनित गुरूदेव की आरति ,नित्यपाठ आज भी घर घर में तथा सभी आश्रमों पर प्रात सायं नियिमित रूप से भक्तों के व्दारा बोली जाती है ।
औदीच्य समाज के ऐसे गौरवपूर्ण ,तपस्वी महामनीषी का जन्म ,भारव्दाज गौत्रीय श्री बलदेवदासजी चम्पालाल जी उपाध्याय के यहां चैत्र शुक्ल 9 रामनवमी संवत 1953 तदनुसार 23 मार्च 1896 को आगर जिला शाजापुर म;प्र; में हुआ । आगर में रहकर ही आपे विशेष योग्यता के साथ अध्ययन कर वकालात का व्यवसाय प्रारम्भ किया । साहित्य के क्षेत्र में भी आपने अनेक रचनाऐं लिखी जो तत्कालिन अनेक पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित भी हुई ।
इस प्रकार अनन्त जीवों का कल्याण करते हुए एवं सन्मार्ग पर प्रेरित करते हुवे दिनांक 26 अक्टूम्बर 1945 को धोंसवास जिला रतलाम में आप ब्रहमलीन हो गए । वहीं आपका समाधि मन्दिर बना हुआ है। जहां हजारों भक्त प्रतिवर्ष दर्शन,पूजन हेतु दूर दूर से आते रहते हैं । औदीच्य समाज के इतिहास में आपका नाम सदैव अमर रहेगा ।
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- औदीच्य रत्न ,"महिर्षि स्वामी दयानंद सरस्वती "लेबल: औदीच्य समाज के गोरव
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- भागवताचार्य सन्त श्री रमेशभाई ओझालेबल: औदीच्य समाज के गोरव
- समाज के गोरव गीतकार कवि स्व. श्री रामचन्द्र प्रदीप-विडिओ सहित लेबल: औदीच्य समाज के
औदीच्य रत्न पं; मुकुन्दराम जी त्रिवेदी लेबल: औदीच्य समाज के गोरव
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